झारखंड आंदोलन के एक अनसुने सिपाही मो. नौशाद आज टूटे हुए हैं। मोहनपुर प्रखंड के पाटजोर गांव के इस बुजुर्ग का शरीर भले ही अब जवाब देने लगा हो, लेकिन जब शिबू सोरेन की याद आती है, तो जैसे भीतर से कोई पुरानी आग फिर से भड़क उठती है। गुरुजी के निधन की खबर ने उन्हें भीतर तक झकझोर दिया है।
“हम तो साथ थे… 1978 से…,” कहते-कहते उनकी आवाज भर्रा जाती है। बैठते हैं, फिर यादों का गट्ठर खोल देते हैं—”कांग्रेस सरकार की दमनकारी नीति के खिलाफ संघर्ष तेज हो गया था। हम गुरुजी के साथ दुमका स्थापना दिवस समारोह में जा रहे थे। तभी खबर आई कि उपायुक्त यू.डी. चौबे हम दोनों को गोली मारने के इरादे से खोज रहे हैं।”
नौशाद की आंखें डबडबा जाती हैं। बोलते हैं, “जामा के पास गाड़ी छोड़ दी, खेते-खेत भागे। रास्ते में एक सूखे कुएं में गिर पड़े। मेरी पायजामा फट गई। गुरुजी गांव वालों से लूंगी मांग लाए। उसी लूंगी को पहनकर गुरुजी ने उसी रात दुमका कलक्टर ऑफिस के सामने सभा की।”
गौरव और संघर्ष से भरी यह कहानी जैसे आज भी उनके मन में धड़कती है। बताते हैं, “एक बार जब रासुका लग गया था, तो पुलिस की नजर से बचने के लिए हम दोनों त्रिकुट पर्वत के पीछे दो दिन तक धान के खेत में छिपे रहे। वही रातें… वही डर… वही संकल्प…”
स्मृतियों की नमी अब आंखों के रास्ते बहने लगती है। कांपती आवाज में कहते हैं—”अब झारखंड का क्या होगा?”
और फिर जैसे वह आवाज किसी और के लिए नहीं, बल्कि आने वाले झारखंड के लिए जिम्मेदारी छोड़ती है—”गुरुजी का सपना, गुरुजी की तरह बनकर हेमंत जी को पूरा करना होगा। ये अब उनकी जिम्मेदारी है।”
मो. नौशाद की आंखें बोल रही थीं, उनकी खामोशी झारखंड की आत्मा की चीख थी। त्रिकुट की ओट में छिपे संघर्ष के वो पल आज भी इस धरती पर जिंदा हैं—और तब तक रहेंगे, जब तक सपनों का झारखंड पूरा नहीं होता।
