आजसू पार्टी के इस शर्मनाक प्रदर्शन के लिए जिम्मेदार कौन और पार्टी का गद्दार कौन? विश्लेषण जरूरी है.

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लेखक : हिमांशु शेखर 

 

झारखंड विधानसभा चुनाव में बेहद ही निराशजनक प्रदर्शन के साथ आजसू पार्टी उस मुहाने पर खड़ी है, जहां एक गहन समीक्षा होनी चाहिए। बहुत ईमानदारी से और नैतिकता के साथ। यह हर एक वैसे कैडर और पदाधिकारी के हित में होगा, जिन्होंने अपनी जिंदगी का लंबा समय पार्टी को दिया है। और उन्हें ये नतीजे परेशान करते दिख रहे हैं। पार्टी एक बड़े एलायंस का हिस्सा थी, लेकिन इसका लाभ उठाने में कहाँ चूक हो गई। उल्टा बीजेपी पर ही दोषारोपण किया जा रहा है। ठीकरा फोड़ने से नहीं होगा। जिम्मेदारी लेनी होगी. 

झारखंड विधानसभा चुनाव में आजसू पार्टी के निराशाजनक प्रदर्शन ने केवल एक राजनीतिक पराजय को नहीं दर्शाया, बल्कि उन लाखों कार्यकर्ताओं के आत्मविश्वास और भविष्य को गहरी चोट पहुंचाई है जिन्होंने अपना जीवन, समय और ऊर्जा पार्टी को मजबूत करने में समर्पित कर दिया। यह एक ऐसी हार है, जो सिर्फ सीटों की नहीं, बल्कि आस्था, भरोसे और नेतृत्व की विफलता की हार है। इस हार के बाद, सबसे अधिक आहत वे कार्यकर्ता हैं जिन्होंने झारखंड आंदोलन के दौर में अपने खून-पसीने से पार्टी को खड़ा किया। पार्टी नेतृत्व के ग़लत निर्णयों से और पार्टी की लगातार विफलता युवा कार्यकर्ता आहत हैं। 

आजसू कभी जनसंघर्षों की आवाज हुआ करती थी। लेकिन आज एक सशक्त संगठन की बजाय एकल निर्णय लेने वाली प्राइवेट लिमिटेड कंपनी के रूप में बदलती दिखी। कंपनी जहाँ निर्णयों में सामूहिकता की कोई जगह नहीं रही। केंद्रीय समिति, कार्यकारिणी, संसदीय बोर्ड, केंद्रीय महासभा, ज़िला समिति, विभिन्न सहयोगी संगठनों का सम्मेलन जैसे संस्थानों की औपचारिकताएं तो निभाई गईं, पर चुनाव जैसे महत्वपूर्ण समय में न ही इनसे सलाह ली गई, न ही जवाबदेही तय की गई। पार्टी के बड़े बड़े नेता चाहते हुए भी बैठकों में मुँह नहीं खोलना चाहते है। उन्हें अपने सम्मान खोने का डर रहता है। सच्चाई है की बड़े बड़े नेता कुछ बोलने से डरते है. चुनाव के बाद समीक्षा बैठक में हुए बर्ताव से दुखी झारखंड आंदोलन और पार्टी के मजबूत सिपाही स्वर्गीय कमल किशोर भगत की पत्नी नीरू शांति भगत को पार्टी छोड़ना पड़ा. लोहरदगा छोड़ किसी विधानसभा की समीक्षा नहीं की गईं. दोहरे मापदंड का कारण भी स्पष्ट करना चाहिए. नीरू शांति भगत अगर राज्य के मुखिया से मिलती है तो भरी बैठक में माफ़ी माँगना पड़ता है. दुर्भाग्य आंदोलनकारी का . ऐसे आंदोलनकारी जिन्होंने झारखंड बनने के बाद भी 6 वर्षों की सजा काटी. ऐसे आंदोलनकर्मियों इन्होंने झारखंड आंदोलन की लड़ाई के मामले में अपनी सदस्यता गवाई. शर्मनाक. 

बीते विधानसभा चुनाव में भाजपा के साथ गठबंधन में आजसू पार्टी की 10 सीटों की हिस्सेदारी मिली, बीजेपी के बड़े नेताओं की मौजूदगी, पर्याप्त संसाधन, हेलीकॉप्टर – सब कुछ था। परंतु रणनीति, समन्वय और संवाद का अभाव पूरी तरह झलकता रहा। स्टार प्रचारकों की भूमिका नगण्य रही। मीडिया में पार्टी की बात रखने वाला कोई चेहरा सामने नहीं आया। यहाँ तक कि प्रमुख प्रवक्ता भी मीडिया से गायब दिखे। अगर जनता तक हमारी बात ही नहीं पहुँची, तो हम उनके समर्थन की उम्मीद कैसे कर सकते थे? पार्टी के बुद्धिजीवी मंच के अध्यक्ष डोमन सिंह मुंडा की एक भी सभा में उपस्थिति नहीं रही.  सामाजिक नयाय की बात करने वाली हमारी पार्टी सीटो के गठबंधन में सामाजिक समीकरण का भी ख़याल भी नहीं रख पायी. हुसैनाबाद, बड़कागाँव, तमाड़ सीट इसके उदाहरण हैं. विरोधी परिवारवादी पार्टी का आरोप लगाते रहे हम इसका जवाब जनता को नहीं दे पाये. ज़िम्मेदारी किसकी है? 

चुनावों के दौरान ही कई प्रमुख नेताओं ने दल छोड़ दिया। उनके दल छोड़ने के कारण संगठन में इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। पार्टी छोड़कर 15 से अधिक लोग अन्य दलों से या निर्दलीय चुनाव लड़े लोगो के मन में मलाल है कि उन्हें अंतिम समय तक अंधेरे में रखा गया अगर उन्हें समय पर आगाह किया जाता तो वो शायद चुनाव जीत जाते. उन्हें शीर्ष नेतृत्व द्वारा समझाकर चुनाव नहीं लड़ने देने का कोई प्रयास नहीं किया गया. वहीं बीजेपी के बड़े बड़े नेता सभी स्तर के बागियों के घर जाकर समझाने का प्रयास करते दिखे. 

जिन चूल्हा प्रमुखों के भरोसे संगठन का ढांचा खड़ा हुआ, वही चुनाव के समय भ्रमित दिखे। संसाधनों और दिशा के अभाव में वे असहाय महसूस करते रहे। महाधिवेशन जैसे महत्वपूर्ण आयोजन में प्रदेश स्तरीय नेताओं को संबोधन का अवसर तक नहीं दिया गया। कैडर और नेताओं को बना दिया गया दर्शक और बाहर के आयातित ग़ैर राजनीतिक लोगों को ज्ञान देने के लिए बुलाया गया जो ना पार्टी को समझते हैं, ना झारखंड को और ना झारखंड के युवाओं को और ना झारखंड गटन के उद्देश्य को. पार्टी के प्रधान महासचिव, वरीय उपाध्यक्ष, उपाध्यक्ष, महासचिव, सचिव, ज़िला अध्यक्ष की कोई भूमिका नहीं रही. यहाँ तक की प्रधान महासचिव को 5 मिनट भी नहीं बोलने दिया गया. बाक़ी नेताओं की क्या भूमिका रही होगी इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है. सभी बड़े नेता एक वेतनभोगी कर्मचारी की तरह बैठे रहे. जिनका वेतन दो वक्त का भोजन था. लोकतंत्र में सम्मान और स्वाभिमान केवल एक का नहीं बल्कि सभी का विशेषाधिकार है. 

पार्टी द्वारा ठीक चुनाव से पहले धुर्वा में आयोजित युवाओं का कार्यक्रम भी असफल रहा। यह दावा किया गया था कि 5 लाख युवाओं से फॉर्म भरे जाएंगे और मुख्यमंत्री को सौंपे जाएँगे. लेकिन ये फॉर्म कुछ हज़ारो तक सिमट कर रह गया. मुख्यमंत्री को तो एक फॉर्म भी नहीं दिया गया. युवा से जुड़े इतने गंभीर मसले पर कोई रोड मैप नहीं. 2022 को जनधन योजना प्रारम्भ की गई थी और पार्टी का निर्णय था कि पार्टी के पदाधिकारी हर महीने एक निश्चित राशि पार्टी कोष में देंगे। एक भी पदाधिकारी ने इस निर्णय को नहीं माना. यहाँ तक की पार्टी अध्यक्ष, प्रधान महासचिव, प्रधान प्रवक्ता, सांसद, विधायक, पूर्व विषयक भी. यह एक स्पष्ट संदेश है कि या तो पार्टी दिशाविहीन है या नेतृत्व. 

जयराम महतो के उभर में समझने में पार्टी नेतृत्व विफल रही. एक गरीबी और संघर्ष से उपजा युवा जो गिरिडीह संसदीय क्षेत्र से लगभग 3.5 लाख वोट लाए वहीं देवेंद्र महतो को रांची से लगभग 1.4 लाख वोट मिले।सिल्ली विधानसभा से लगभग 49000 वोट लाकर अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करा दी थी . पार्टी उन्हें सड़क पर नाचने वाले की संज्ञा देती रही. कभी झाँशाराम की संज्ञा देती रही. किसी को झोंटा की उपाधि से नवाजते रहे. इसके अलावा सभी लोकसभा में दमदार उपस्थिति दर्ज करते हुए 8 लाख से अधिक वोट लाने में सफल रहे. हमारे शीर्ष नेता क्या कर रहे थे?  जबकि देश और राज्य के बड़े छोटे मीडिया इसकी गंभीरता को लगातार प्रकाशित कर रहे थे. 

 

 

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