पटना । बिहार सरकार द्वारा राज्य के सभी प्रखंडों में डिग्री महाविद्यालय खोलने की पहल पर सवाल खड़े हो गए हैं। शिक्षा विभाग ने हाल ही में सभी जिलाधिकारियों को पत्र (ज्ञापांक: 15/पी5-22/2025-1111) भेजकर शहरी क्षेत्रों में 2.5 एकड़ और ग्रामीण क्षेत्रों में 5 एकड़ भूमि चिह्नित करने का निर्देश दिया है। लेकिन इस दिशा में उठाया गया यह कदम शिक्षकों के संगठन फैक्टनेब को “कागजी कवायद” नजर आ रहा है।
“पहले से मौजूद कॉलेजों को क्यों भुला रही है सरकार?”—फैक्टनेब
बिहार राज्य संबद्ध डिग्री महाविद्यालय शिक्षक-शिक्षकेतर कर्मचारी महासंघ (फैक्टनेब) के अध्यक्ष डॉ. शंभुनाथ प्रसाद सिन्हा, महासचिव प्रो. राजीव रंजन और मीडिया प्रभारी प्रो. अरुण गौतम ने एक संयुक्त बयान में कहा कि सरकार जिस कार्य को अब शुरू करने की बात कर रही है, वह कार्य राज्य के अधिकांश प्रखंडों में पिछले चार दशकों से निस्वार्थ भाव से किया जा रहा है।
इन नेताओं के अनुसार, राज्य में पहले से मौजूद अनुदानित-संबद्ध डिग्री कॉलेज, जिनकी जमीन 6 एकड़ से 81 एकड़ तक फैली है, न केवल भवन, पुस्तकालय, लैब, खेल मैदान जैसे संसाधनों से युक्त हैं, बल्कि योग्य, अनुभवी शिक्षक और कर्मचारी भी वर्षों से बिना नियमित वेतन के शिक्षा दे रहे हैं।
“हमारे कॉलेजों ने बिना सरकारी वेतन के हजारों छात्रों का भविष्य संवारा है, और आज भी कर रहे हैं। अगर सरकार को सच में उच्च शिक्षा की चिंता है, तो वह पहले इन कॉलेजों को स्थायित्व दे”—प्रो. राजीव रंजन
विकास के नाम पर पुनरावृत्ति या उपेक्षा की नीति?
फैक्टनेब नेताओं का आरोप है कि यह कवायद महज़ “दिखावटी विकास” है। उनका कहना है कि नए भूखंड खोजने के बजाय सरकार को चाहिए कि वह पहले से कार्यरत संबद्ध महाविद्यालयों को सरकारी मान्यता देकर, उनमें कार्यरत शिक्षकों और कर्मचारियों को वेतन संरचना और वित्तीय स्थायित्व प्रदान करे।
“कागज पर कॉलेज खोलना आसान है, पर जमीन पर शिक्षा की नींव हमने डाली है। अब अगर सरकार वाकई संजीदा है, तो भूखंड नहीं, भरोसा दीजिए”—प्रो. अरुण गौतम
आमजन को गुमराह करने का आरोप
फैक्टनेब ने इस पूरी प्रक्रिया को “जनता को गुमराह करने वाला कदम” बताते हुए कहा कि सरकार सिर्फ घोषणाओं और कागजी पत्राचार से असली शिक्षा नीति को ढंकने की कोशिश कर रही है। यह राज्य के हजारों शिक्षकों और लाखों छात्रों के साथ अन्याय है।
ज़मीनी सच्चाई से मुंह मोड़ती नीतियां
यह मामला एक बड़ा सवाल खड़ा करता है—क्या बिहार सरकार नई इमारतों और भूखंडों के जरिए शिक्षा का विकास चाहती है या ज़मीन पर वर्षों से टिके कॉलेजों और समर्पित शिक्षकों को सशक्त बनाकर शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाना चाहती है?
बिहार में शिक्षा सुधार की असली चुनौती अब “नई शुरुआत” नहीं, बल्कि “मौजूदा व्यवस्था को मान्यता” देना है। शिक्षा विभाग का जारी फरमान उच्च शिक्षा में व्याप्त विसंगतियों और नीतिगत प्राथमिकताओं को उजागर करती है।
