बात 1970 के दशक की है। झारखंड आंदोलन अपने शुरुआती दौर में था और दिशोम गुरु शिबू सोरेन संघर्ष के कठिन रास्ते पर थे। न संसाधन थे, न पहचान। ऐसे वक्त में एक नामचीन ज़मींदार ने उनका साथ दिया- ठाकुर सरयू प्रसाद सिंह। बोकारो के माराफारी इलाके के ठाकुर साहब न केवल सामाजिक हैसियत में ऊंचे थे, बल्कि दिल भी बड़ा था। उन्होंने न सिर्फ शिबू सोरेन को सहयोग दिया, बल्कि उनका आत्मविश्वास भी बढ़ाया।
वक्त बदला। शिबू सोरेन झारखंड की राजनीति में शीर्ष पर पहुंचे। मगर दोस्ती की वो पुरानी गांठ नहीं भूले। फिर एक दिन वो मौका आया, जब इस दोस्ती का असली इम्तहान हुआ।
3 मई 2003, ठाकुर सरयू प्रसाद सिंह को दिल का दौरा पड़ा। हालत गंभीर थी। बोकारो में इलाज मुमकिन नहीं था। जैसे ही यह खबर शिबू सोरेन परिवार को मिली, तत्काल निर्णय हुआ — ठाकुर साहब को एयरलिफ्ट कर दिल्ली लाया जाए। उस समय हेमंत सोरेन और पूरा परिवार इस काम में लग गया। उन्हें राममनोहर लोहिया अस्पताल में भर्ती कराया गया। खून की ज़रूरत पड़ी तो हेमंत समेत आठ लोगों ने रक्तदान किया।
इलाज सफल रहा। ठाकुर साहब बच गए। उन्होंने बाद में कई बार कहा — “शिबू सोरेन ने दोस्ती का कर्ज़ नहीं, इंसानियत का धर्म निभाया।”
यह सिर्फ एक दोस्ती की कहानी नहीं है। यह एक ऐसे नेता की पहचान है, जिसने सत्ता की ऊंचाई पर पहुंचकर भी अपने संघर्ष के दिनों को भुलाया नहीं।
शिबू सोरेन अब नहीं हैं, लेकिन उनकी यह मिसाल हमेशा झारखंड की राजनीति को गरिमा और संवेदनशीलता का पाठ पढ़ाएगी।
