पटना : बिहार में आगामी विधानसभा चुनावों को लेकर सियासी हलचल तेज हो गई है। अब तक चुनावी रणनीतिकार से नेता बने प्रशांत किशोर (पीके) के बाद, एक और नाम राजनीतिक मंच पर उभर कर सामने आया है। यह नाम है शिवदीप वामनराव लांडे, जो पहले बिहार पुलिस के ‘सिंघम’ के रूप में प्रसिद्ध थे। लांडे ने हाल ही में अपनी नई पार्टी “हिंदसेना” का गठन किया और ऐलान किया कि उनकी पार्टी बिहार की 243 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ेगी। हालांकि, लांडे ने अभी तक यह स्पष्ट नहीं किया है कि वे खुद कहां से चुनावी मैदान में उतरेंगे, लेकिन उनका कहना है कि “जो बिहार में बदलाव चाहता है, उसका स्वागत है।”
लांडे का यह दावा है कि कई राजनीतिक दलों ने उन्हें राज्यसभा भेजने, मंत्री बनाने और मुख्यमंत्री पद का ऑफर दिया था, लेकिन उन्होंने इन्हें ठुकरा दिया। उनका उद्देश्य बिहार में बदलाव लाना है, और इसलिए उन्होंने अपनी पार्टी बनाने का निर्णय लिया। इस बयान के तुरंत बाद, बिहार पुलिस एसोसिएशन के अध्यक्ष मृत्युंजय कुमार सिंह ने सोशल मीडिया पर कहा, “बिहार में कोई बिहारी ही मुख्यमंत्री बनेगा, महाराष्ट्र की ‘हिंदसेना’ यहां नहीं चलेगी।”
बिहार की जातिवादी सियासत में शिवदीप लांडे की चुनौती
बिहार की सियासत जातिवाद पर आधारित रही है, जहां प्रमुख दलों की राजनीति को जातीय समीकरणों से जोड़कर ही अपनी स्थिति बनाई जाती है। लालू यादव को यादवों का नेता और नीतीश कुमार को कोइरी-कोर्मी राजनीति का प्रतीक माना जाता है। बिहार में बाहरी नेताओं के लिए सियासी राह हमेशा कठिन रही है, और शिवदीप लांडे, जो महाराष्ट्र के अकोला जिले के रहने वाले हैं, को इस संदर्भ में सख्त चुनौती का सामना करना पड़ सकता है।
यहां की राजनीति में ‘बाहरी’ होने का आरोप अक्सर नए नेताओं के खिलाफ इस्तेमाल किया जाता है, और लांडे के मामले में भी यही हो सकता है। लांडे की पार्टी के खिलाफ यह भी आरोप लगाए जा सकते हैं कि उनका बिहार से कोई गहरा संबंध नहीं है और न ही वे बिहार के स्थानीय मुद्दों को सही तरीके से समझते हैं।
क्या ‘सिंघम’ की छवि बनेगी चुनावी हथियार?
शिवदीप लांडे की सख्त, ईम्र, और दबंग छवि ने उन्हें एक आदर्श अधिकारी के रूप में पहचान दिलाई है। उनकी साफ-सुथरी और निष्पक्ष कार्यशैली ने उन्हें बिहार में एक सकारात्मक छवि के रूप में स्थापित किया है। लेकिन, क्या यह छवि उन्हें चुनावी राजनीति में भी कारगर साबित हो पाएगी? यह सवाल अब अहम बन गया है।
बिहार में पहले भी कई आईपीएस अधिकारी और ब्यूरोक्रेट्स चुनावी मैदान में उतरे हैं, जिनकी छवि भी ‘दबंग’ रही थी, जैसे डीपी ओझा और आरआर प्रसाद, लेकिन उन्हें चुनाव में जनता का विश्वास नहीं मिल सका। डीपी ओझा, जो कुख्यात बाहुबली नेताओं के खिलाफ अपनी रिपोर्ट के लिए प्रसिद्ध थे, चुनावी मैदान में उतरे तो उनकी जमानत तक जब्त हो गई। इसी तरह, आरआर प्रसाद ने भी भोजपुर से चुनाव लड़ा था, लेकिन वहां भी उनकी किस्मत साथ नहीं दी। क्या लांडे इन सियासी प्रयोगों से कुछ सीखेंगे या वही परिणाम झेलेंगे?
बिहार में बाहरी नेताओं के लिए कितना स्थान?
बिहार की राजनीति में बाहरी नेताओं के लिए कभी भी आसान रास्ता नहीं रहा। चाहे वह महाराष्ट्र के शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे हों या फिर पूर्व आईपीएस अधिकारी और कांग्रेस नेता आरके सिंह, राज्य में बाहरी नेताओं का तगड़ा विरोध देखा गया है। बिहार की सियासत जाति आधारित समीकरणों पर आधारित है, जहां हर दल अपने जातीय वोट बैंक को साधने की कोशिश करता है। ऐसे में लांडे की पार्टी को अपनी पहचान बनाने में भारी कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है, खासकर जब वे एक बाहरी राज्य से आते हैं और उनकी पार्टी का नाम भी बिहार के स्थानीय मुद्दों से कुछ हद तक अलग दिखता है।
शिवदीप लांडे का सपना और पुष्पम प्रिया की निराशा
शिवदीप लांडे का राजनीति में कदम रखना अपने आप में एक नया प्रयोग है, लेकिन बिहार में यह पहला नहीं है। इससे पहले, युवा नेता पुष्पम प्रिया, जिन्होंने अपनी पार्टी “जन सुराज” बनाई थी, भी बिहार में बदलाव का सपना देख रही थीं। उन्होंने बिहार के विकास की बात की और मुख्यमंत्री बनने का भी सपना देखा था, लेकिन उनकी पार्टी बिहार की राजनीतिक धारा में कोई महत्वपूर्ण स्थान नहीं बना पाई और उनका सपना चूर हो गया। क्या लांडे भी वही रास्ता अपनाएंगे, या उनका राजनीतिक कदम उन्हें सफल बनाएगा, यह तो भविष्य ही बताएगा।
लांडे की पार्टी का राजनीति पर प्रभाव
हालांकि, लांडे की पार्टी ‘हिंदसेना’ भले ही चुनावी सफलता हासिल न करे, लेकिन यह राज्य के चुनावी समीकरण को प्रभावित कर सकती है। बिहार में चुनावी जीत हार का निर्णय कभी भी छोटे वोटों के अंतर से होता है, और लांडे की पार्टी कुछ वोट खींचकर चुनाव परिणामों पर असर डाल सकती है। यह देखा गया है कि कभी-कभी एक नया पार्टी या नेता चुनावों में महज वोटों का विभाजन कर देता है, जिससे मुख्य दलों की जीत या हार तय होती है।
अंततः यह कहा जा सकता है कि शिवदीप लांडे की पार्टी ‘हिंदसेना’ बिहार की राजनीति में एक नया प्रयोग हो सकता है, लेकिन उन्हें बिहार के जातिवादी राजनीतिक माहौल में अपनी जगह बनाना आसान नहीं होगा। लांडे की छवि और उनकी पार्टी के उद्देश्य भले ही जनता को आकर्षित करें, लेकिन यह देखना बाकी है कि वे कितनी बड़ी सियासी चुनौती पेश कर पाते हैं। बिहार की राजनीति में बाहरी नेताओं के लिए हमेशा मुश्किलें रही हैं, और लांडे को इन्हीं चुनौतियों का सामना करना होगा।
