सरहुल प्रकृति के प्रति आदिवासियों की अटूट श्रद्धा का प्रतीक : शिवा कच्छप

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रांची:  झारखंड में आज सरहुल का पावन पर्व धूमधाम से मनाया जा रहा है। यह पर्व आदिवासी समुदाय के लिए प्रकृति के प्रति उनकी गहरी श्रद्धा और सम्मान का प्रतीक है। चैत्र माह में मनाया जाने वाला यह त्योहार, जब प्रकृति अपने नए रूप में खिल उठती है, आदिवासियों के जीवन में एक विशेष महत्व रखता है।

सरहुल, जिसे ‘बाहा पर्व’ के नाम से भी जाना जाता है, आदिवासी समुदाय का सबसे महत्वपूर्ण त्योहार है। यह पर्व प्रकृति के प्रति उनके अटूट संबंध को दर्शाता है। आज, झारखंड के विभिन्न हिस्सों में, आदिवासी समुदाय पारंपरिक वेशभूषा में सजे-धजे, ढोल-नगाड़ों की थाप पर थिरकते हुए शोभायात्रा निकाल रहे हैं।

इस अवसर पर, केंद्रीय सरना संघर्ष समिति के प्रदेश अध्यक्ष, श्री शिवा कच्छप ने कहा, “प्रकृति का दोहन करना सरहुल जैसे पवित्र पर्व का अपमान है। हमें प्रकृति के प्रति वफादार रहना चाहिए और उसका सम्मान करना चाहिए। आदिवासी समाज प्रकृति प्रेमी है, और उनका जीवन प्रकृति पर आधारित है।”

सरहुल के दौरान, साल के पेड़ों की विशेष पूजा की जाती है, क्योंकि यह पेड़ आदिवासी संस्कृति में पवित्र माना जाता है। इस पर्व के माध्यम से, आदिवासी समुदाय प्रकृति से अच्छी फसल और समृद्धि की कामना करते हैं।

इस वर्ष, सरहुल ने 32 आदिवासी समुदायों और झारखंड के सदनों को एक साथ लाकर एकता का अद्भुत प्रदर्शन किया है। शोभायात्रा में सभी समुदायों की भागीदारी ने झारखंड की सांस्कृतिक विविधता और एकता को दर्शाया।

पर्यावरण संरक्षण के महत्व पर जोर देते हुए, श्री कच्छप ने कहा, “हमें प्रकृति से प्रेम करना चाहिए और आदिवासी संस्कृति का सम्मान करना चाहिए। यह हमारे पर्यावरण को सुरक्षित रखने का एकमात्र तरीका है।”

सरहुल न केवल एक धार्मिक त्योहार है, बल्कि यह आदिवासी संस्कृति और परंपराओं का जीवंत प्रदर्शन भी है। यह पर्व हमें प्रकृति के महत्व और इसके संरक्षण की आवश्यकता की याद दिलाता है।

 

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Author: gaytri

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